भगवान श्रीकृष्ण का जीवन केवल धर्म स्थापना और युद्ध विजय तक सीमित नहीं था, बल्कि यह प्रेम, भक्ति और आध्यात्मिक चेतना से भी जुड़ा हुआ था। उनके जीवन की अनेक लीलाओं में से एक सबसे महत्वपूर्ण घटना थी रुक्मिणी विवाह। यह केवल एक राजकुमारी और एक राजकुमार का विवाह नहीं था, बल्कि यह सच्चे प्रेम, भक्ति और समर्पण की विजय की कहानी है।
रुक्मिणी ने भगवान श्रीकृष्ण को मन, वचन और कर्म से अपना पति मान लिया था, लेकिन उनके भाई रुक्मी ने उनके विवाह को रोकने के लिए हर संभव प्रयास किया। फिर भी, जब प्रेम सच्चा हो और भक्ति अडिग हो, तो स्वयं भगवान उसे सफल बनाते हैं। यही सिद्धांत इस कथा का मूल है।
रुक्मिणी विदर्भ के राजा भीष्मक की पुत्री थीं। वे अत्यंत सुंदर, विदुषी और भगवान विष्णु की अनन्य भक्त थीं। उन्होंने बाल्यकाल से ही भगवान श्रीकृष्ण को अपने पति रूप में स्वीकार कर लिया था।
किन्तु, उनका भाई रुक्मी श्रीकृष्ण से शत्रुता रखता था और वह नहीं चाहता था कि रुक्मिणी का विवाह उनसे हो। उसने रुक्मिणी का विवाह चेदि नरेश शिशुपाल से तय कर दिया, जो श्रीकृष्ण का कट्टर विरोधी था।
रुक्मिणी इस निर्णय से अत्यंत दुखी हुईं। उन्हें विश्वास था कि यदि उनका विवाह श्रीकृष्ण से नहीं हुआ, तो उनका जीवन व्यर्थ हो जाएगा। उन्होंने निश्चय किया कि वे स्वयं श्रीकृष्ण को संदेश भेजेंगी और उनसे आग्रह करेंगी कि वे आकर उनका उद्धार करें।
रुक्मिणी ने एक विश्वसनीय ब्राह्मण को अपना पत्र देकर द्वारका भेजा। इस पत्र में उन्होंने श्रीकृष्ण से प्रेम और भक्ति से भरी प्रार्थना की—
“हे प्रभु! यदि आप वास्तव में दीनों के नाथ हैं और यदि मैंने मन, वचन और कर्म से आपको ही अपना पति माना है, तो कृपया आकर मेरा उद्धार करें।”
उन्होंने आगे लिखा कि विवाह से एक दिन पहले वे देवी भवानी के मंदिर में प्रार्थना करने जाएँगी, और वहीं पर श्रीकृष्ण आकर उन्हें ले जा सकते हैं।ब्राह्मण ने यह संदेश द्वारका जाकर श्रीकृष्ण को दिया। श्रीकृष्ण ने इसे पढ़ते ही विदर्भ जाने का निश्चय किया।
ब्राह्मण ने यह संदेश द्वारका जाकर श्रीकृष्ण को दिया। श्रीकृष्ण ने इसे पढ़ते ही विदर्भ जाने का निश्चय किया।
विवाह से एक दिन पहले, रुक्मिणी भवानी माता के मंदिर में प्रार्थना करने गईं। वे प्रार्थना कर ही रही थीं कि अचानक श्रीकृष्ण अपने गरुड़ वाहन पर वहाँ प्रकट हुए। उन्होंने रुक्मिणी को अपने रथ पर बैठाया और तेज गति से वहाँ से निकल पड़े।
जब यह समाचार विदर्भ राजमहल पहुँचा, तो वहाँ हड़कंप मच गया। रुक्मी और शिशुपाल अत्यंत क्रोधित हो गए और श्रीकृष्ण का पीछा करने के लिए अपनी सेना भेजी।
रुक्मी ने श्रीकृष्ण को रोकने के लिए उन पर हमला कर दिया। उसने श्रीकृष्ण से युद्ध किया, लेकिन वह उनकी दिव्य शक्ति के सामने टिक नहीं सका।श्रीकृष्ण ने रुक्मी को पराजित किया और उसे मारने का विचार किया, लेकिन रुक्मिणी के आग्रह पर उन्होंने उसे जीवित छोड़ दिया।
श्रीकृष्ण, रुक्मिणी को द्वारका ले गए, जहाँ भव्य उत्सव के साथ विवाह संपन्न हुआ। यह विवाह सभी देवी-देवताओं, ऋषि-मुनियों और यदुवंश के सभी प्रमुख सदस्यों की उपस्थिति में हुआ।
द्वारका नगरी को फूलों, दीपों और रंगोली से सजाया गया। संपूर्ण नगर में हर्षोल्लास और आनंद का वातावरण था। सभी ने इस दिव्य युगल को आशीर्वाद दिया।इस प्रकार, रुक्मिणी ने न केवल अपने प्रेम और भक्ति की परीक्षा पास की, बल्कि यह भी सिद्ध किया कि जब प्रेम सच्चा और निष्कलंक होता है, तो स्वयं भगवान उसकी रक्षा करने के लिए आते हैं।
श्रीकृष्ण और रुक्मिणी के सबसे बड़े पुत्र प्रद्युम्न थे, जो भगवान कामदेव का अवतार माने जाते हैं।
जन्म के बाद, शंभरासुर नामक राक्षस ने भविष्यवाणी के अनुसार प्रद्युम्न को मारने के लिए उनका अपहरण कर लिया और उन्हें समुद्र में फेंक दिया। लेकिन संयोगवश एक मछली ने उन्हें निगल लिया और वह मछली एक मछुआरे के जाल में फँस गई।
जब वह मछली पकड़ी गई और राक्षस की रानी मायावती को दी गई, तो उसने बालक को जीवित पाया। उसने उसका पालन-पोषण किया और जब वह बड़ा हुआ, तो उसे बताया कि वह श्रीकृष्ण का पुत्र है।बड़े होने पर, प्रद्युम्न ने शंभरासुर का वध किया और अपने माता-पिता के पास द्वारका लौटे। वे आगे चलकर मिथिला की राजकुमारी रति (कामदेव की पत्नी) से विवाह करके भगवान श्रीकृष्ण के राज्य में एक वीर योद्धा बने।
श्रीकृष्ण और रुक्मिणी का विवाह केवल एक पौराणिक कथा नहीं, बल्कि यह प्रेम, भक्ति और शक्ति का अद्भुत संगम है।श्रीकृष्ण और रुक्मिणी का जीवन हमें आदर्श दांपत्य जीवन और परम भक्ति का मार्ग दिखाता है। यह कथा हर भक्त और प्रेमी के लिए एक प्रेरणा है कि सच्चे प्रेम और विश्वास से हर कठिनाई को पार किया जा सकता है।
“राधे-कृष्ण! जय श्रीकृष्ण!”
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