12 Jyotirlinga : भगवान शिव हिंदू धर्म के प्रमुख देवताओं में से एक हैं। उनका अनंत रूप और अनन्त शक्ति हमें जीवन के विभिन्न पहलुओं का बोध कराती है। शिव की उपासना और भक्ति हमें आंतरिक शांति और सद्गति प्रदान करती है। शिव पुराण के अनुसार, भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग हैं, जो भारत के विभिन्न हिस्सों में स्थित हैं। प्रत्येक ज्योतिर्लिंग भगवान शिव के विशेष स्वरूप और शक्तियों का प्रतीक है। इस ब्लॉग में हम इन 12 ज्योतिर्लिंगों के बारे में जानेंगे।
सोमनाथ गुजरात के वेरावल शहर में स्थित है और इसे चंद्रमा का रक्षक कहा जाता है। यह भगवान शिव के प्रमुख ज्योतिर्लिंगों में से एक है। शिव पुराण के अनुसार, चंद्रमा का विवाह राजा दक्ष की 24 कन्याओं से हुआ था, लेकिन चंद्रमा केवल रोहिणी से ही प्रेम करते थे और बाकी कन्याओं की उपेक्षा करते थे। यह देख बाकी कन्याएं दुखी होकर अपने पिता दक्ष के पास गईं और अपनी पीड़ा व्यक्त की। दक्ष ने चंद्रमा को कई बार समझाने का प्रयास किया, लेकिन चंद्रमा केवल रोहिणी में ही आसक्त रहे। इससे क्रोधित होकर दक्ष ने उन्हें शाप दिया कि वे क्षयरोग से पीड़ित हो जाएंगे।
दक्ष के शाप के कारण चंद्रमा धीरे-धीरे क्षीण होते गए, जिससे पूरे संसार में हाहाकार मच गया। देवताओं ने इस संकट को महसूस किया और चंद्रमा को ब्रह्मा जी के पास ले गए। ब्रह्मा जी ने चंद्रमा को प्रभास क्षेत्र में जाकर भगवान शिव की आराधना करने की सलाह दी। चंद्रमा ने प्रभास क्षेत्र में निरंतर 6 माह तक 10 करोड़ महामृत्युंजय मंत्र का जाप किया, जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव प्रकट हुए और उन्हें शापमुक्त किया।
हालांकि, भगवान शिव ने यह वरदान भी दिया कि एक पक्ष में उनकी कला क्षीण होती रहेगी और दूसरे पक्ष में वह पुनः बढ़ेगी। इस प्रकार, भगवान शिव ने सोमनाथ ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा के लिए इस स्थान पर निवास किया और यह स्थान ‘सोमनाथ’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया।
मल्लिकार्जुन आंध्र प्रदेश के श्रीशैलम में स्थित है और इसे भगवान शिव और देवी पार्वती का प्रतीक माना जाता है।जब भगवान शिव और देवी पार्वती ने अपने पुत्रों, गणेश और कार्तिकेय, के विवाह के लिए सही समय का निर्धारण करना चाहा, तो उन्होंने एक प्रतियोगिता का आयोजन किया। जिससे यह तय हुआ कि जो भी पुत्र पहले पृथ्वी का चक्कर लगाएगा, उसका विवाह पहले होगा।
कार्तिकेय ने अपने मयूर पर सवार होकर पूरी पृथ्वी का भ्रमण शुरू किया, जबकि गणेश ने अपनी बुद्धिमानी से अपने माता-पिता, शिव और पार्वती, की परिक्रमा की। गणेश ने कहा कि माता-पिता ही उनके लिए संपूर्ण ब्रह्मांड हैं। इस पर भगवान शिव और माता पार्वती बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने श्री गणेश का विवाह पहले कर दिया गया।
जब कार्तिकेय लौटे और यह सुना, तो वे दुखी हो गए और क्रोधित होकर क्रौंच पर्वत (जो बाद में श्रीशैलम के नाम से जाना गया) चले गए। उनकी अनुपस्थिति से माता पार्वती अत्यंत दुखी थीं। भगवान शिव ने कार्तिकेय को बुलाने के लिए देवताओं और ऋषियों को भेजा, लेकिन कार्तिकेय ने उनकी बात नहीं मानी। अंततः, भगवान शिव और देवी पार्वती ने मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के रूप में श्रीशैलम में निवास करने का निर्णय लिया।
यहाँ, भगवान शिव ने अमावस्या को अपने पुत्र को देखने का निर्णय लिया, जबकि देवी पार्वती पूर्णिमा को आती थीं। इस प्रेम के कारण, यह स्थान तीनों लोकों में प्रसिद्ध हो गया। जो भी भक्त मल्लिकार्जुन ज्योतिर्लिंग के दर्शन करते है, उन्हें] सभी पापों से मुक्ति मिलती है और उनकी सभी इच्छाएँ पूर्ण होती हैं।
महाकालेश्वर उज्जैन में स्थित है और इसे ‘काल’ अर्थात समय का स्वामी माना जाता है। उज्जैन में एक ब्राह्मण परिवार के चार पुत्र रहते थे, जो भगवान शिव के परम भक्त थे। वे प्रतिदिन नियमपूर्वक भगवान शिव की पूजा-अर्चना करते थे। उसी समय उज्जैन पर एक राक्षस, दूषण, का अत्याचार बढ़ गया था। दूषण ने उज्जैन के निवासियों को बहुत कष्ट दिया, और शिव जी ध्यान में लगे ब्राह्मणों पर जैसे ही दैत्य ने प्रहार किया वैसे ही पार्थिव के शिवलिंग से विकट रूप धारी महाकाल स्वयं प्रकट हुए और दूषण का संहार किया l
इस प्रकार, भगवान शिव ने उज्जैन के लोगों को दूषण के आतंक से मुक्ति दिलाई। तत्पश्चात ब्राह्मणों की प्रार्थना पर भगवान शिव ने महाकालेश्वर के रूप में उसी स्थान पर निवास करने का निर्णय लिया, जहाँ उन्होंने दूषण का अंत किया था। यह ज्योतिर्लिंग आज भी उज्जैन में स्थित है और इसे श्री महाकालेश्वर के नाम से जाना जाता है।
ओंकारेश्वर मध्य प्रदेश के इंदौर जिले में स्थित है और इसे ओमकार के रूप में पूजा जाता है। शिव पुराण के अनुसार, प्राचीन काल में विंध्याचल पर्वत के राजा विंध्य पर्वत ने भगवान शिव की घोर तपस्या की थी। विंध्याचल पर्वत को ऐसा प्रतीत हुआ कि वह सृष्टि में सबसे महान नहीं है, क्योंकि सुमेरु पर्वत उससे अधिक ऊँचा और महान माना जाता था। इस असंतोष को दूर करने के लिए विंध्याचल पर्वत ने भगवान शिव की आराधना करने का संकल्प लिया।
विंध्याचल ने भगवान शिव की कठोर तपस्या की, जिसमें उसने शिवलिंग की स्थापना की और लगातार भगवान शिव का स्मरण करते हुए उनकी आराधना की। अंततः भगवान शिव विंध्याचल की घोर तपस्या से प्रसन्न हुए और उनके समक्ष प्रकट हुए।
भगवान शिव ने विंध्याचल पर्वत को दर्शन दिए और उसकी भक्ति से प्रसन्न होकर उसे वरदान दिया। भगवान शिव ने उसे आशीर्वाद दिया कि वह अपने सामर्थ्य और महत्व को महसूस कर सकेगा, लेकिन उन्होंने विंध्याचल को यह भी बताया कि उसे अपनी शक्ति का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए। इसी स्थान पर भगवान शिव ने स्वयं को दो भागों में विभाजित किया — एक “ओंकारेश्वर” और दूसरा “ममलेश्वर” ज्योतिर्लिंग के रूप में। इस प्रकार, भगवान शिव ने दो ज्योतिर्लिंगों के रूप में यहाँ प्रकट होकर इस क्षेत्र को पवित्र और धार्मिक रूप से महत्वपूर्ण बना दिया।
केदारनाथ ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति से जुड़ी अनेक पौराणिक कथाएं हैं। शिव पुराण में बताया गया है कि भगवान विष्णु के अवतार नर और नारायण ने बद्रिकाश्रम में घोर तप किया जिससे प्रसन्न हो भगवान शिव ने उन्हें दर्शन दिया और वरदान मांगने को कहा , तब नर नारायण ने लोककल्याण के लिए सदा शिव शंकर से यही विराजमान होने की प्रार्थना करी तभी से भगवान शिव केदारखंड अपर ज्योतिरूप में विराजित हैं l
एक अन्य कथा के अनुसार महाभारत के युद्ध के बाद पांडव अपने पापों से मुक्त होने के लिए भगवान शिव की आराधना करने हिमालय पहुंचे। लेकिन भगवान शिव पांडवों से नाराज थे और उनसे मिलने से बचने के लिए उन्होंने केदार में एक बैल का रूप धारण कर लिया। पांडवों को इसका आभास हो गया और भीम ने बैल के पिछले हिस्से को पकड़ने का प्रयास किया, जिससे भगवान शिव के शरीर के अंग विभिन्न स्थानों पर बिखर गए। यह माना जाता है कि जहां-जहां शिव के अंग गिरे, वहां-पंच केदारों का निर्माण हुआ। केदारनाथ उन पंच केदारों में से प्रमुख है, जहां भगवान शिव का पृष्ठभाग पूजित है।
श्री भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र के नासिक में स्थित हैं | भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति कथा शिव पुराण में वर्णित एक प्रमुख पौराणिक कथा है। यह कथा राक्षस भीम और भगवान शिव के बीच हुई एक महान लड़ाई पर आधारित है।
कथानुसार, त्रेता युग में राक्षस भीम का जन्म कुम्भकर्ण (रावण के भाई) और करकट नामक राक्षसी के संयोग से हुआ था। भीम अपने जन्म से ही अत्यंत शक्तिशाली और क्रूर स्वभाव का था। जब उसे अपने पिता कुम्भकर्ण की राम द्वारा हत्या के बारे में पता चला, तो उसने प्रतिशोध लेने का निश्चय किया। उसने भीषण तपस्या की और ब्रह्मा जी से वरदान प्राप्त किया कि वह अपराजेय हो जाए। इस वरदान के बाद भीम ने पृथ्वी पर दानवों का आतंक फैलाना शुरू कर दिया। उसने देवताओं को भी हराकर स्वर्ग पर अधिकार कर लिया और उनके राज्य को नष्ट कर दिया। देवताओं की यह स्थिति देखकर वे सभी भगवान शिव की शरण में गए और उनसे प्रार्थना की कि वे भीम का विनाश करें।
उस समय एक राजा, जो भगवान शिव के परम भक्त थे l वे भगवान शिव की आराधना कर रहे थे जब भीम ने उन्हें भगवान शिव की पूजा छोड़ने को कहा, तो राजा ने मना कर दिया। इससे क्रोधित होकर भीम उन्हें मारने के लिए आगे बढ़ा, लेकिन उसी समय शिवलिंग से भगवान शिव प्रकट हुए और उन्होंने भीम का वध कर दिया।
भीम का संहार करने के बाद, भगवान शिव ने देवताओं की प्रार्थना पर उसी स्थान पर भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के रूप में निवास करने का निर्णय लिया। तभी से भगवान शिव श्री भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के रूप में यहां विराजमान हैं l
काशी विश्वनाथ वाराणसी में स्थित है और इसे ब्रह्मांड का स्वामी माना जाता है। श्री काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग उत्पत्ति से जुड़ी एक पौराणिक कथा शिव पुराण में विस्तार से वर्णित है। कथा के अनुसार, जब संसार में कुछ नही था तब भगवान ने प्रकृति और पुरुष की रचना की और उन्हें तप करने की आज्ञा दी किंतु तप के लिए कोई स्थान नहीं था, तब महादेव ने अंतरिक्ष में स्थित सभी सामग्रियों और सम्पूर्ण तेज के सारभूत से पांच कोस का एक नगर बनाया और प्रलयकाल में जब वह नगर डूबने लगा तब शिव ने उसे अपने त्रिशूल पर धारण कर लिया l
इसके बाद जब ब्रह्मा जी द्वारा सृष्टि की रचना की गई तब महादेव ने काशी को अपने त्रिशूल से उतारकर धरती लोक में स्थापित कर दिया l यह काशी नगरी लोक कल्याण करने वाली, कर्मबंधन का विनाश करने वाली, मोक्ष तत्व को प्रकाशित करने वाली तथा ज्ञान प्रदान करने वाली हैं l
तत्पश्चात शिव जी ने अपने अंश अविमुक्त नामक लिंग को स्वयं स्थापित किया और उसे कभी भी काशी का त्याग न करने का आदेश दिया l ब्रह्मा जी का एक दिन पूरा होने पर अर्थात सृष्टि के प्रलयकाल के समय भी काशी का नाश संभव नही l
त्र्यंबकेश्वर नासिक में स्थित है और इसे त्रिनेत्र शिव के नाम से जाना जाता है। त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग की उत्पत्ति से जुड़ी एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा शिव पुराण में मिलती है। कथा के अनुसार, एक समय जब ब्रह्मगिरी पर्वत पर भयानक अकाल पड़ा तब महर्षि गौतम ने अपने तप से भगवान वरुण को प्रसन्न किया और वरदान में जल वृष्टि मांगी किंतु वरुण देव ने वृष्टि के लिए मना कर गौतम ऋषि को एक गड्ढा करने को कहा जिसे वरुण देव ने कभी न खत्म होने वाले दिव्य जल से भर दिया, लेकिन कुछ ऋषियों ने उनके विरुद्ध षड्यंत्र रचा और उन्हें गौ हत्या का दोषी ठहराया।
महर्षि गौतम ने गौ हत्या के दोष मुक्ति के लिए भगवान शिव की घोर तपस्या की, जिसके परिणामस्वरूप भगवान शिव ने ऋषि गौतम को दर्शन दिए l ऋषि गौतम ने वरदान में गंगा को धरती पर प्रकट करने का वरदान मांगा किंतु मां गंगा ने शिव जी कहा कि यदि मेरा महत्व बाकी सभी नदियों से ज्यादा रहेगा और आप भी मेरे साथ यहां निवास करेंगे तभी में इस धरातल पर रहूंगी l तब भगवान शिव ज्योतिर्लिंग रूप में ब्रह्मगिरी पर स्थित हो गए l तत्पश्चात मां गंगा ने महर्षि गौतम को पाप से मुक्त किया और तभी से शिव जी त्र्यंबकेश्वर ज्योतिर्लिंग के रूप में ब्रह्मगिरी पर्वत पर विराजमान हैं l
मां गंगा का वह रूप गौतमी कहलाया जिसे वर्तमान में गोदावरी भी कहा जाता है।
देवघर झारखंड में स्थित है शिव पुराण के अनुसार, रावण ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कठोर तपस्या की थी। उसने भगवान शिव को अपने आराध्य देव के रूप में मानकर अपनी भक्ति अर्पित की। किंतु इतने कठोर तप के बाद भी जब शिव जी प्रसन्न नहीं हुए तो रावण ने अपने शीश को काटकर उन्हें अर्पित करना प्रारंभ कर दिया l जब रावण ने एक – एक कर के अपने 9 शीश काट दिए और 10वा शीश अर्पित किया तब शिव जी ने प्रसन्न होकर रावण को दर्शन दिए और उसके 9 शीश पहले जैसे कर दिए । जबर शिव जी द्वारा रावण से वर मांगने को कहा गया तो रावण ने उन्हें अपने साथ लंका ले जाने का आग्रह किया l
तब शिव जी ने उसे एक शिवलिंग प्रदान किया और कहा कि वह इसे लेकर लंका जा सकता है, लेकिन यह चेतावनी दी कि यदि वह इसे मार्ग में किसी स्थान पर भूमि पर रखता है, तो यह शिवलिंग उसी स्थान पर स्थापित हो जाएगा। रावण ने इस शिवलिंग को लेकर लंका की ओर यात्रा प्रारंभ की, लेकिन यात्रा के दौरान जब उसे लघुशंका आई । तब रावण ने वहां आसपास एक ग्वाले को देख कर उससे शिवलिंग प्रार्थनापूर्वक शिवलिंग सौंप दिया एक मुहूर्त बीतते – बीतते जब ग्वाला शिवलिंग के भर से अत्यंत पीड़ित हुआ तो उसने शिवलिंग को धरती पर रख दिया तभी से वह शिवलिंग देवघर में स्थापित हो गया और यह स्थान बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग के रूप में विख्यात हो गया।
शिव पुराण में नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के उत्पत्ति की कथा बहुत ही प्रचलित है। ऐसा माना जाता है कि दारुक नामक एक राक्षस ने अपने राज्य में सभी साधु-संतों और भक्तों को परेशान करना शुरू कर दिया था। वह अपने जादू से शिव भक्तों को कैद कर लेता था और उन्हें यातनाएं देता था। जब एक समय दारुक ने सुप्रिय नामक वैश्य का अपहरण कर लिया तब सुप्रिय ने भगवान शिव की आराधना की और उन्हें सहायता के लिए पुकारा। तब भक्त की प्रार्थना सुनकर भगवान शिव एक विवर अर्थात एक छिद्र से प्रकट हुए l उनके साथ ही एक चार दरवाजों का मंदिर भी प्रकट हो गया जिसके मध्य में भोलेनाथ ज्योतिर्लिंग रूप में विराजित थे l तब शिवजी ने दारुक का वध किया।
इस युद्ध के पश्चात भगवान शिव ने उस स्थान पर स्वयं को स्थापित किया, ताकि उनके भक्त हमेशा सुरक्षित रहें और उन्हें किसी प्रकार का भय न हो। इस स्थान पर स्थापित होने के कारण यह “नागेश्वर” ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रसिद्ध हो गया। इसे “द्वारका का रक्षक” भी कहा जाता है, जो अपने भक्तों की सुरक्षा करता है और उनकी मनोकामनाओं को पूर्ण करता है।
रामेश्वर तमिलनाडु के रामेश्वरम में स्थित है और इसे भगवान राम का निवास स्थान माना जाता है। शिव पुराण के अनुसार, जब श्री राम ने सीता हरण के बाद लंका पर चढ़ाई आरंभ करी तब सेतु बनाने से पूर्व श्री राम को प्यास लगी और वानर ने उन्हें मीठा जल लाकर दिया l जल पीने से पूर्व ही राम को याद आया की उन्होंने अपने आराध्य शिव की आराधना तो की ही नही, तब उन्होंने शिव जी की ज्योतिर्लिंग रूप में स्थापना की और उनसे विजय की कामना की l तभी से भगवान शिव यहां ज्योतिर्लिंग के रूप में विद्यमान हैं l इसे ही आज हम श्री रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग के नाम से जानते हैं।
घृष्णेश्वर महाराष्ट्र के औंढा नागनाथ में स्थित है घृष्णेश्वर ज्योतिर्लिंग की कथा शिव पुराण में वर्णित है। एक ब्राह्मणी, सुदेहा, जो शिवभक्त थी, लेकिन उसकी कोई संतान नहीं थी। इस कारण उसने अपनी बहन घृष्णा का विवाह अपने पति ब्रह्मवेत्ता से करवा दिया। घृष्णा भगवान शिव की परम भक्त थीं और प्रतिदिन 101 मिट्टी के शिवलिंग बनाकर उनकी पूजा करती थीं। उनकी पूजा और भक्ति के फलस्वरूप घृष्णा को एक पुत्र की प्राप्ति हुई।
इससे सुदेहा को घोर ईर्ष्या होने लगी, और एक दिन जलन के कारण उसने घृष्णा के पुत्र की हत्या कर दी। शव के टुकड़े उसी तालाब में फेंक दिए जहाँ घृष्णा अपने शिवलिंगों का विसर्जन करती थीं। पुत्र की मृत्यु की सूचना मिलने पर भी घृष्णा विचलित नहीं हुई और पहले की तरह अपनी पूजा पूरी की। जब उसने शिवलिंग विसर्जन के लिए तालाब में प्रवेश किया, तो भगवान शिव स्वयं ज्योति रूप में प्रकट हुए और उसके पुत्र को पुनः जीवित कर दिया।
भगवान शिव घृष्णा की अडिग श्रद्धा और भक्ति से प्रसन्न हुए और ज्योति रूप में वहीं विराजमान हो गए। तभी से इस स्थान को “घृष्णेश्वर” कहा जाने लगा, और यहाँ शिवजी की पूजा की जाती है।
भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंग भारत भर में भक्तों की श्रद्धा और आस्था के प्रतीक हैं। प्रत्येक ज्योतिर्लिंग का अपना विशेष महत्व और दिव्यता है, जो जीवन के विभिन्न पहलुओं को प्रकट करता है। इन पवित्र स्थलों के दर्शन से मनुष्य न केवल आंतरिक शांति और मोक्ष प्राप्त करता है बल्कि जीवन की कठिनाइयों का समाधान भी पाता है। शिव पुराण में वर्णित इन ज्योतिर्लिंगों की यात्रा एक आत्मिक अनुभव है, जो हमें भगवान शिव की कृपा और आशीर्वाद के करीब लाती है। यह यात्रा हमें आत्मा की गहराई से जुड़ने और जीवन को नई दिशा देने का अवसर प्रदान करती है।
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