भगवान विष्णु के दशावतार, हिंदू धर्म के ग्रंथों में वर्णित हैं, जो पृथ्वी पर धर्म की स्थापना और अधर्म के नाश के लिए भगवान विष्णु द्वारा लिए गए दस प्रमुख अवतारों की कहानियाँ हैं। ये अवतार मानव जीवन के विभिन्न पहलुओं को संबोधित करते हैं और धर्म, सत्य, और न्याय की स्थापना के लिए प्रेरणा देते हैं।
सत्यव्रत नाम के एक धर्मात्मा राजा प्रतिदिन नित्य कर्म के बाद नदी में स्नान करते थे। एक दिन स्नान के दौरान उन्हें एक छोटी मछली दिखी जो उनकी मदद माँग रही थी। सत्यव्रत ने उसे अपने कमंडल में डाल लिया। कुछ ही समय में मछली का आकार बढ़ने लगा, और जल्द ही वह विशाल रूप धारण कर गई। तब सत्यव्रत को ज्ञात हुआ कि यह भगवान विष्णु का अवतार है।
भगवान मत्स्य ने राजा को बताया कि शीघ्र ही प्रलय आएगा और पृथ्वी जलमग्न हो जाएगी। उन्होंने राजा को एक विशाल नाव तैयार करने और उसमें सप्तऋषियों, जीव-जंतुओं और वनस्पतियों को लेकर सुरक्षित रहने का निर्देश दिया। मत्स्य अवतार ने इस प्रलय में राजा सत्यव्रत की रक्षा की।
यह अवतार सृष्टि की रक्षा और जीवन के पुनर्निर्माण का प्रतीक है।
एक बार देवताओं और असुरों ने अमृत प्राप्ति के लिए समुद्र मंथन करने का निश्चय किया। इसके लिए मंदराचल पर्वत को मथनी और वासुकी नाग को रस्सी बनाया गया। जब पर्वत डगमगाने लगा, तो भगवान विष्णु ने कूर्म (कछुए) का रूप धारण कर पर्वत को अपनी पीठ पर स्थिर कर दिया।
समुद्र मंथन से 14 रत्नों की प्राप्ति हुई, जिनमें अमृत, लक्ष्मी जी, और कल्पवृक्ष शामिल थे।
कूर्म अवतार धैर्य और स्थिरता का प्रतीक है। यह सिखाता है कि कठिन परिस्थितियों में भी दृढ़ता बनाए रखनी चाहिए।
असुर हिरण्याक्ष ने पृथ्वी को जल में डुबो दिया था। सभी देवता और ऋषि भयभीत होकर भगवान विष्णु के पास सहायता माँगने गए। तब भगवान विष्णु ने वराह का रूप धारण किया।
वराह अवतार ने समुद्र में जाकर हिरण्याक्ष से युद्ध किया और उसे मार डाला। इसके बाद भगवान ने पृथ्वी को अपने दाँतों पर उठाकर पुनः स्थापित किया।
वराह अवतार अधर्म पर धर्म की विजय का प्रतीक है। यह सिखाता है कि जब पृथ्वी पर असंतुलन होता है, तब ईश्वर हस्तक्षेप करते हैं।
हिरण्यकशिपु नामक असुर ने ब्रह्मा से वरदान प्राप्त कर लिया था कि उसे न दिन में मारा जा सकता है, न रात में; न मनुष्य द्वारा, न पशु द्वारा; न घर के अंदर, न बाहर। उसने अपने पुत्र प्रह्लाद को भगवान विष्णु की भक्ति करने से रोकने के लिए अत्याचार किए।
जब प्रह्लाद को मारने का हर प्रयास विफल हो गया, तो भगवान विष्णु नृसिंह रूप में प्रकट हुए। संध्या के समय खंभे से प्रकट होकर, उन्होंने हिरण्यकशिपु को दरवाजे की चौखट पर अपने नाखूनों से मार डाला।
यह अवतार भक्ति और धर्म की शक्ति का प्रतीक है।
राजा बलि ने यज्ञ करके तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया था। देवता परेशान होकर भगवान विष्णु की शरण में गए। भगवान विष्णु ने वामन (बौने ब्राह्मण) का रूप धारण किया और बलि से तीन पग भूमि माँगी।
बलि ने इसे स्वीकार कर लिया। भगवान ने पहले पग में पृथ्वी, दूसरे में स्वर्ग नाप लिया। तीसरे पग के लिए बलि ने अपना सिर भगवान को अर्पित कर दिया।
वामन अवतार विनम्रता और त्याग का प्रतीक है।
परशुराम भगवान विष्णु का योद्धा अवतार हैं। उन्होंने अन्यायी क्षत्रियों को समाप्त करने का प्रण लिया था। अपने पिता की हत्या का बदला लेने के लिए परशुराम ने 21 बार पृथ्वी से अत्याचारी क्षत्रियों का संहार किया।
यह अवतार अन्याय के खिलाफ संघर्ष का प्रतीक है।
भगवान राम विष्णु के सातवें अवतार हैं। उन्होंने रावण के आतंक से पृथ्वी को मुक्त कराया। रामायण उनकी जीवन गाथा है, जिसमें उन्होंने धर्म, सत्य, और मर्यादा का पालन करते हुए आदर्श स्थापित किया।
राम अवतार मर्यादा और धर्म का प्रतीक है।
भगवान कृष्ण ने महाभारत में अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया और अधर्म के अंत के लिए कंस और शिशुपाल जैसे असुरों का वध किया। उन्होंने गोपियों के साथ प्रेम और मुरलीधारी के रूप में भक्ति की अनूठी मिसाल कायम की।
कृष्ण अवतार प्रेम, चतुराई और धर्म की पुनर्स्थापना का प्रतीक है।
भगवान बुद्ध, नौवें अवतार हैं। लेकिन गौतम बुद्ध और भगवान बुद्ध एक नहीं हैं। गौतम बुद्ध शुद्धोदन व माया के पुत्र थे, जबकि शाक्यसिंह यानी भगवान गौतम बुद्ध बहुत ही ज्ञानी व्यक्ति थे, कठिन तपस्या के बाद जब उन्हें तत्त्वानुभूति हुई तो वे बुद्ध कहलाए यही भगवान बुद्ध विष्णु के अवतार हैं।
बुद्ध अवतार शांति और अहिंसा का प्रतीक है।
कलियुग के अंत में, जब अधर्म चरम सीमा पर होगा, भगवान विष्णु कल्कि अवतार लेकर घोड़े पर सवार होकर प्रकट होंगे और अधर्म का नाश करेंगे।
यह धर्म की पुनर्स्थापना का प्रतीक है।
भगवान विष्णु के दशावतार यह सिखाते हैं कि धर्म, सत्य और न्याय की स्थापना के लिए समय-समय पर ईश्वर अवतार लेते हैं। प्रत्येक अवतार से हमें जीवन के महत्वपूर्ण सबक और प्रेरणा मिलती है।
“ॐ नमो भगवते वासुदेवाय।”
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