भगवान श्रीकृष्ण को केवल एक महान योद्धा और राजनीतिज्ञ के रूप में ही नहीं, बल्कि एक दूरदर्शी शासक के रूप में भी जाना जाता है। उन्होंने धर्म की रक्षा के लिए न केवल अत्याचारी राजाओं का नाश किया, बल्कि अपनी प्रजा के कल्याण के लिए भी कई महत्वपूर्ण कार्य किए। ऐसा ही एक महत्वपूर्ण कार्य था द्वारका नगरी की स्थापना।लेकिन प्रश्न यह उठता है कि मथुरा में जन्मे और वहीं पले-बढ़े श्रीकृष्ण ने द्वारका को ही अपना नया निवास स्थान क्यों बनाया? इस प्रश्न का उत्तर भागवत पुराण में विस्तार से मिलता है।
जब श्रीकृष्ण ने कंस का वध किया, तब मथुरा के लोग बहुत प्रसन्न हुए। लेकिन कंस के मारे जाने के बाद उसका ससुर जरासंध, जो मगध का शक्तिशाली राजा था, श्रीकृष्ण से शत्रुता करने लगा।
जरासंध ने 17 बार मथुरा पर आक्रमण किया, लेकिन हर बार श्रीकृष्ण और बलराम ने उसे पराजित कर दिया। हालांकि, हर युद्ध में मथुरा की जनता को भारी कष्ट उठाने पड़े।
जब 18वीं बार जरासंध ने मथुरा पर विशाल सेना के साथ आक्रमण किया, तब श्रीकृष्ण ने एक रणनीति बनाई। वे जानते थे कि जरासंध को युद्ध में बार-बार हराने के बावजूद, वह बार-बार हमला करता रहेगा और इससे मथुरा के निर्दोष लोगों को कष्ट उठाना पड़ेगा।इसी दौरान, कालयवन नामक एक शक्तिशाली म्लेच्छ राजा ने भी मथुरा पर चढ़ाई कर दी। अब एक ओर जरासंध और दूसरी ओर कालयवन की सेना थी। श्रीकृष्ण ने समझ लिया कि अब मथुरा को बचाने के लिए युद्ध से अधिक एक नई योजना की आवश्यकता है।
श्रीकृष्ण जानते थे कि केवल युद्ध से समस्या हल नहीं होगी। यदि मथुरा पर हमले होते रहे, तो यदुवंश और मथुरा की जनता को निरंतर कष्ट उठाना पड़ेगा। इसलिए उन्होंने बलराम के साथ एक रणनीति बनाई और मथुरा को छोड़कर पश्चिम दिशा की ओर जाने का निर्णय लिया।उन्होंने बिना युद्ध किए मथुरा छोड़ दी, जिससे कुछ लोगों ने उन्हें रणछोड़ (युद्ध से भागने वाला) कहकर उपहास किया। लेकिन असल में यह उनका एक महान राजनीतिक और कूटनीतिक निर्णय था, क्योंकि उनका उद्देश्य केवल युद्ध जीतना नहीं, बल्कि अपने लोगों की सुरक्षा करना था।
श्रीकृष्ण ने अपनी सेना और यदुवंशियों को लेकर गुजरात के समुद्री तट की ओर प्रस्थान किया। उन्होंने देखा कि वहाँ एक विस्तृत, निर्जन और प्राकृतिक रूप से सुरक्षित स्थान था, जो चारों ओर से जल से घिरा हुआ था। उन्होंने समुद्र देवता से प्रार्थना की और समुद्र ने प्रसन्न होकर १२ योजन (लगभग 96 मील) भूमि श्रीकृष्ण को प्रदान की। इसी स्थान पर श्रीकृष्ण ने विश्वकर्मा (देवताओं के शिल्पकार) की सहायता से एक सुंदर और दिव्य नगरी का निर्माण कराया, जिसे द्वारका कहा गया।
भागवत पुराण में वर्णित है कि द्वारका नगरी अत्यंत भव्य और दिव्य थी।
द्वारका यदुवंशियों की नई राजधानी बनी, जहाँ वे बिना किसी बाहरी आक्रमण के सुखपूर्वक रह सकते थे।
जब श्रीकृष्ण मथुरा छोड़कर द्वारका चले गए, तो कालयवन उन्हें खोजते हुए उनके पीछे दौड़ा। श्रीकृष्ण ने कालयवन से युद्ध नहीं किया, बल्कि उसे चकमा देकर एक गुफा की ओर भागे। कालयवन ने यह देखकर सोचा कि श्रीकृष्ण उससे डर गए हैं, इसलिए भाग रहे हैं। वह तेजी से श्रीकृष्ण के पीछे दौड़ा और उस गुफा में घुस गया। इस गुफा के अंदर मुचुकुंद नामक एक महान राजा सो रहे थे।
राजा मुचुकुंद इक्ष्वाकु वंश के पराक्रमी राजा थे। उन्होंने स्वर्गलोक में देवताओं की सहायता करने के लिए असुरों के खिलाफ युद्ध किया था। जब युद्ध समाप्त हुआ, तो वे बहुत थक गए थे और उन्होंने विश्राम की इच्छा जताई।
देवताओं ने उन्हें वरदान दिया कि वे गहरी निद्रा में चले जाएँगे, और जो भी उनकी नींद में उन्हें जगाएगा, वह उनकी दृष्टि पड़ते ही भस्म हो जाएगा।
कालयवन यह समझा कि श्रीकृष्ण गुफा में सो रहे हैं, इसलिए उसने जैसे ही मुचुकुंद को पैर से छुआ, वे जाग गए।
जैसे ही राजा मुचुकुंद की दृष्टि कालयवन पर पड़ी, वह तत्काल भस्म हो गया!
इस प्रकार बिना युद्ध किए ही श्रीकृष्ण ने कालयवन का वध कर दिया।
द्वारका केवल एक नगरी नहीं थी, बल्कि यह श्रीकृष्ण की दूरदर्शिता, नीति और धर्म की स्थापना का प्रतीक थी। उन्होंने केवल युद्ध करने के बजाय, बुद्धिमानी से एक नया राज्य बसाया, जहाँ उनका वंश और उनकी प्रजा सुरक्षित रह सके।आज भी द्वारका नगरी का ऐतिहासिक और आध्यात्मिक महत्व बना हुआ है। आधुनिक द्वारका (गुजरात) में स्थित द्वारकाधीश मंदिर इस बात का प्रतीक है कि श्रीकृष्ण ने केवल युद्ध से नहीं, बल्कि अपनी बुद्धिमानी से भी धर्म की स्थापना की। उनका यह निर्णय हमें सिखाता है कि कभी-कभी रणछोड़ कहलाना भी एक महान योद्धा की सबसे बड़ी विजय हो सकती है!
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