Shrimad Bhagwat Mahapuran: श्रीमद्भागवत महापुराण हिंदू धर्म के सबसे महत्वपूर्ण पुराणों में से एक है। यह पुराण विशेष रूप से भगवान विष्णु के विभिन्न अवतारों और उनके भक्तों की कथाओं को समर्पित है। इस ग्रंथ में भक्ति, धर्म और मोक्ष के गूढ़ रहस्यों का वर्णन किया गया है।
इससे पहले हमने श्रीमद्भागवत महापुराण की 5 प्रसिद्ध कथाएँ (प्रह्लाद-नरसिंह, समुद्र मंथन, वामन अवतार, ध्रुव कथा और गोवर्धन पर्वत) का विस्तार से वर्णन किया था। अब हम 5 और प्रमुख कथाएँ प्रस्तुत कर रहे हैं, जो भागवत महापुराण में वर्णित हैं।
Table of Contents
Toggle1. अजामिल की मुक्ति की कथा | Ajamil Ki Mukti Ki Katha
(संदर्भ: श्रीमद्भागवत महापुराण, स्कंध 6, अध्याय 1-2)
कथा का विस्तार:
अजामिल एक धर्मपरायण ब्राह्मण था, लेकिन वह एक गणिका (वेश्या) के प्रेम में पड़कर पतित हो गया। उसने धर्म-कर्म छोड़ दिया और पापमय जीवन जीने लगा।
उसके अंतिम समय में, जब यमदूत उसे लेने आए, तब भयवश उसने अपने सबसे छोटे पुत्र “नारायण!” का नाम पुकारा।
यमराज के दूत अजामिल की आत्मा को ले जाने ही वाले थे कि भगवान विष्णु के पार्षद (विष्णुदूत) वहाँ आ गए और उन्होंने यमदूतों को रोका।
विष्णुदूत और यमदूतों के बीच संवाद:
यमदूतों ने कहा –
“अजामिल ने अनेक पाप किए हैं, अतः इसे यमलोक ले जाना चाहिए।”
विष्णुदूतों ने उत्तर दिया –
“अजामिल ने अंतिम समय में ‘नारायण’ नाम का उच्चारण किया। यह भगवान विष्णु का नाम है, जिससे उसके सारे पाप नष्ट हो गए हैं। उसे यमलोक नहीं, बल्कि वैकुंठ जाना चाहिए।”
यमराज ने भी स्वीकार किया कि जो भक्त सच्चे भाव से हरि का नाम स्मरण करता है, उसे यमलोक नहीं जाना पड़ता।
शिक्षा:
- भगवान का नाम स्मरण सबसे बड़ा पुण्य है।
- यदि अंतिम समय में भी प्रभु का स्मरण हो जाए, तो मुक्ति संभव है।
2. गजेन्द्र मोक्ष | Gajendra Moksha
(संदर्भ: श्रीमद्भागवत महापुराण, स्कंध 8, अध्याय 2-4)
कथा का विस्तार:
एक समय त्रिकूट पर्वत पर एक गज (हाथी) गजेन्द्र अपने परिवार के साथ जलाशय में स्नान कर रहा था। तभी एक भयंकर मगरमच्छ ने उसका पैर पकड़ लिया।
गजेन्द्र ने पूरा बल लगाकर बाहर निकलने की कोशिश की, लेकिन वह सफल नहीं हो सका।
हजारों वर्षों तक युद्ध करने के बाद, जब गजेन्द्र को समझ आ गया कि उसका बल व्यर्थ है, तो उसने भगवान विष्णु का स्मरण किया और उनके चरणों में प्रार्थना की।
भगवान विष्णु का आगमन और गजेन्द्र की मुक्ति:
भगवान विष्णु तुरंत गरुड़ पर सवार होकर वहाँ पहुँचे और अपने सुदर्शन चक्र से मगरमच्छ का वध कर दिया। गजेन्द्र ने भगवान को एक कमल का फूल अर्पित किया और भगवान ने उसे वैकुंठ जाने का आशीर्वाद दिया।
शिक्षा:
- अपनी शक्ति से अधिक भरोसा ईश्वर की कृपा पर होना चाहिए।
- भगवान सच्चे भक्त की रक्षा अवश्य करते हैं।
3. जड़भरत की कथा | Jadhbharat Ki Katha
(संदर्भ: श्रीमद्भागवत महापुराण, स्कंध 5, अध्याय 8-13)
कथा का विस्तार:
प्राचीन काल में राजा उत्तानपाद का राज्य था। उनकी दो पत्नियाँ थीं – सुनीति और सुरुचि। सुनीति से उनका पुत्र ध्रुव हुआ और सुरुचि से उत्तम नामक पुत्र। राजा सुरुचि से अधिक प्रेम करते थे, जिससे ध्रुव और उनकी माता सुनीति उपेक्षित रहते थे।
राजमहल में हुए अपमान की घटना:
एक दिन जब राजा उत्तानपाद अपने छोटे पुत्र उत्तम को गोद में बैठाए हुए थे, तब बालक ध्रुव भी अपने पिता की गोद में बैठने के लिए आगे बढ़ा। लेकिन उसकी सौतेली माँ सुरुचि ने क्रोधपूर्वक उसे रोक दिया और कहा –
“यदि तुम राजा की गोद में बैठना चाहते हो, तो पहले भगवान नारायण की तपस्या करो, जिससे तुम अगले जन्म में मेरे गर्भ से जन्म ले सको!”
इस कठोर अपमान से ध्रुव अत्यंत दुखी और व्यथित हो गए। रोते हुए वे अपनी माँ सुनीति के पास आए और पूरी घटना सुनाई। माँ ने धैर्यपूर्वक कहा –
“बेटा, तुम्हें जो भी चाहिए, वह राजा से नहीं, केवल भगवान से ही मिल सकता है। इसलिए यदि तुम सच में राज्य और सम्मान चाहते हो, तो श्रीहरि की आराधना करो!”
ध्रुव की कठोर तपस्या:
माँ के वचनों को सत्य मानकर 5 वर्षीय बालक ध्रुव अकेले जंगल की ओर निकल पड़े। मार्ग में उन्हें महर्षि नारद मिले, जिन्होंने कहा कि जंगल में जाकर तपस्या करना अत्यंत कठिन कार्य है, विशेष रूप से एक बालक के लिए। लेकिन ध्रुव का संकल्प अटल था। उन्होंने कहा –
“हे मुनिवर! यदि भगवान की कृपा से मैं अपने पिता की गोद में बैठने का अधिकार नहीं पा सकता, तो मैं वह स्थान प्राप्त करूंगा, जिसे कोई भी पा न सके!”
ध्रुव ने यमुना तट पर जाकर घोर तपस्या शुरू की –
- पहले महीने में सिर्फ फल खाए
- दूसरे महीने में पत्ते खाना शुरू किया
- तीसरे महीने में केवल जल पर रहे
- चौथे महीने में सिर्फ वायु पर निर्वाह किया
- पाँचवे महीने में शरीर से श्वास तक छोड़ने लगे
उनकी कठोर तपस्या से तीनों लोकों में हलचल मच गई। देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि वे ध्रुव को दर्शन दें।
भगवान विष्णु का आशीर्वाद:
भगवान विष्णु गरुड़ पर सवार होकर प्रकट हुए और ध्रुव से कहा –
“वत्स! मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूँ। कहो, तुम्हें क्या वरदान चाहिए?”
ध्रुव बोले –
“हे प्रभु! अब मेरा अहंकार समाप्त हो चुका है। मैं केवल आपकी भक्ति चाहता हूँ!”
भगवान ने कहा –
“हे ध्रुव! तुम्हारी तपस्या के कारण तुम्हें स्वर्ग में एक अटल स्थान प्राप्त होगा। तुम्हें ध्रुव तारा (पोलर स्टार) का स्थान मिलेगा, जो सृष्टि के अंत तक अडिग रहेगा!”
इसके बाद ध्रुव अपने पिता के राज्य लौटे। राजा उत्तानपाद ने उन्हें राजसिंहासन सौंप दिया और स्वयं वन में चले गए।
शिक्षा:
- सच्ची भक्ति से असंभव भी संभव हो सकता है।
- दृढ़ संकल्प और आत्म-विश्वास से सर्वोच्च स्थान पाया जा सकता है।
- ईश्वर अपने भक्तों को कभी निराश नहीं करते।
4. असुरराज बलि और भगवान वामन अवतार | Asurraj Bali Aur Bhagwan ka Vaman Avtar
(संदर्भ: श्रीमद्भागवत महापुराण, स्कंध 8, अध्याय 18-22)
कथा का विस्तार:
असुरों के महान राजा बलि अपनी दानशीलता और शक्ति के लिए प्रसिद्ध थे। वे प्रह्लाद के वंशज थे और भगवान विष्णु के परम भक्त भी। अपनी तपस्या और बल के कारण उन्होंने तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया और स्वर्ग लोक के राजा इंद्र को भी पराजित कर दिया।
देवताओं की भगवान विष्णु से प्रार्थना:
जब बलि ने स्वर्ग लोक पर अधिकार कर लिया, तब पराजित देवताओं ने भगवान विष्णु से सहायता की प्रार्थना की।
भगवान ने वामन अवतार (एक बौने ब्राह्मण के रूप में) लिया और राजा बलि से भिक्षा मांगने गए।
भगवान वामन और बलि का संवाद:
जब भगवान वामन राजा बलि के यज्ञ स्थल पर पहुँचे, तो उन्होंने कहा –
“हे दानवीर बलि! मैं केवल तीन पग भूमि चाहता हूँ।”
राजा बलि ने हँसते हुए कहा –
“हे ब्राह्मण! आप चाहें तो पूरा राज्य माँग सकते हैं, केवल तीन पग भूमि क्यों?”
वामन ने उत्तर दिया –
“जो व्यक्ति अपनी इच्छाओं को सीमित नहीं करता, वह सम्पूर्ण पृथ्वी पाकर भी संतुष्ट नहीं होता। तीन पग भूमि मेरे लिए पर्याप्त है।”
राजा बलि ने सहर्ष भिक्षा देने की स्वीकृति दे दी।
भगवान वामन का विराट रूप और बलि की परीक्षा:
जैसे ही बलि ने संकल्प लिया, भगवान वामन ने विराट रूप धारण कर लिया –
- पहले पग में उन्होंने संपूर्ण पृथ्वी और पाताल लोक को नाप लिया।
- दूसरे पग में संपूर्ण स्वर्ग लोक को माप लिया।
- अब तीसरा पग रखने के लिए कोई स्थान शेष नहीं बचा।
भगवान ने बलि से कहा –
“अब बताओ, मैं तीसरा पग कहाँ रखूँ?”
राजा बलि ने उत्तर दिया –
“हे प्रभु! आपने संपूर्ण ब्रह्मांड ले लिया, अब केवल मेरा शीश बचा है। कृपया तीसरा पग मेरे सिर पर रखें।”
भगवान ने तीसरा पग बलि के सिर पर रखकर उन्हें पाताल लोक भेज दिया।
भगवान का वरदान:
बलि की भक्ति और दानशीलता से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने कहा –
“हे बलि! मैं तुम्हारी सत्यनिष्ठा से प्रसन्न हूँ। तुम पाताल लोक के राजा बनोगे और जब कलियुग समाप्त होगा, तब तुम्हें इंद्र का पद प्राप्त होगा!”
भगवान स्वयं बलि के द्वारपाल बनकर पाताल लोक में निवास करने लगे।
शिक्षा:
- सच्चे दानवीर को हर परिस्थिति में अपना वचन निभाना चाहिए।
- ईश्वर भक्तों की परीक्षा अवश्य लेते हैं, लेकिन अंततः उन्हें सम्मान देते हैं।
- अहंकार से बचना चाहिए, चाहे कोई कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो।
5. गोवर्धन पर्वत की कथा | Govardhan Parvat Ki Katha
(संदर्भ: श्रीमद्भागवत महापुराण, स्कंध 10, अध्याय 24-25)
कथा का विस्तार:
ब्रजभूमि में जब बालक श्रीकृष्ण बड़े हो रहे थे, तब वहाँ के लोग प्रत्येक वर्ष इंद्र देव की पूजा करते थे, ताकि वर्षा होती रहे और अच्छी फसल उग सके।
श्रीकृष्ण ने ब्रजवासियों से कहा –
“हम सब गोपालक हैं और हमारी आजीविका गऊओं और गोवर्धन पर्वत पर निर्भर करती है। अतः हमें इंद्र की पूजा करने की आवश्यकता नहीं, बल्कि हमें गोवर्धन पर्वत और गौ माता की पूजा करनी चाहिए!”
गोपों ने श्रीकृष्ण की बात मानकर गोवर्धन पर्वत की पूजा की और इंद्र की पूजा बंद कर दी।
इंद्र का क्रोध और गोवर्धन धारण करना:
इंद्र ने स्वयं का अपमान समझा और क्रोध में आकर ब्रजभूमि पर लगातार 7 दिनों तक घोर वर्षा शुरू कर दी। यह वर्षा इतनी भीषण थी कि समस्त ब्रज डूबने लगा।
तब भगवान श्रीकृष्ण ने अपनी छोटी अंगुली पर गोवर्धन पर्वत उठा लिया और समस्त गोप-गोपियों तथा गऊओं को उसके नीचे आश्रय दिया।
इंद्र ने देखा कि उनकी प्रचंड वर्षा का कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा, तो उन्होंने अपनी हार स्वीकार कर ली और श्रीकृष्ण के चरणों में आकर क्षमा मांगी।
भगवान श्रीकृष्ण द्वारा इंद्र को उपदेश:
भगवान श्रीकृष्ण ने इंद्र से कहा –
“हे इंद्र! अहंकार मनुष्य के पतन का कारण है। सच्चे देवता वे हैं जो दूसरों की सेवा करते हैं, न कि वे जो दूसरों से अपनी पूजा करवाते हैं!”
इंद्र ने अपनी गलती स्वीकार की और श्रीकृष्ण को गोविंद (गौओं के स्वामी) के नाम से संबोधित किया।
शिक्षा:
- ईश्वर अपने भक्तों की रक्षा के लिए कुछ भी कर सकते हैं।
- अहंकार का नाश निश्चित है।
- सच्ची पूजा सेवा और कर्तव्य के पालन में निहित है।
निष्कर्ष | Conclusion
श्रीमद्भागवत महापुराण की ये कथाएँ हमें सिखाती हैं कि भक्ति, सत्य, धैर्य और परिश्रम से जीवन में सफलता प्राप्त की जा सकती है। यह ग्रंथ केवल धार्मिक ग्रंथ नहीं, बल्कि जीवन के गूढ़ रहस्यों को सिखाने वाला आध्यात्मिक मार्गदर्शक है।
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